प्रेम गली अति साँकरी,सुदेश कुमार मेहर का उपन्यास “पण्डिताइन”,खूबसूरत कल्पना को साकार करता अनोखा उपन्यास

मुझे नहीं पता मैंने इस उपन्यास में ऐसा क्या पढ़ लिया कि मैं अबोली हो गई ।इश्क़ ,प्रेम, प्यार ,मोहब्बत के बहुत से अफ़साने पढ़े हैं। एक स्त्री का का मन भी पढ़ा और एक पुरुष का भी। लेकिन जिस शिद्दत से इस उपन्यास के नायक का इश्क़ महसूस किया,ऐसी कशिश, ऐसी पाकीज़गी कहीं नहीं देखी।
प्रेम पर जाने कितने आख्यान लिखे गए, जाने कितनी कविताएं ,गीत, ग़ज़लें कही गईं फिर भी प्रेम कहानी अधूरी रही इस उपन्यास में प्रेम की इसी परंपरा का निर्वाह हुआ है....
“यानी सब लोग अधूरापन लिखते हैं।जो लिखते हैं वह भी और जो नहीं लिखते हैं वे भी।जो नहीं लिखते थे वे मन की स्लेटों पर लिखते थे ।जो लिखते थे वे कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और कई अन्य विधाओं में लिखा करते थे
सब लोग अधूरापन लिखते हैं ।अधूरापन ही सच है। यह जीवन की तरह है।”
इस अधूरेपन की कसक से ज्यादा इश्क़ में होने के एहसास अहम हैं। क्योंकि लेखक को एहसास होता है कि उसके साथ इश्क़ घट गया है । प्रेम में पड़ने की घटना को लेखक ने जिस संदर्भ से जोड़ा है वह अप्रतिम है, अद्भुत है । ऐसा सोचना ही प्रेम की अतुलनीय परिभाषा है।
“जैसा बुद्धत्व घटा था गौतम को।”
उस क्षण को ऐसे अनुभव करना आलौकिक है , प्रेम का साक्षात्कार अवर्णनीय है-
“मैं जैसे तथागत की तरह खुद ही में समाधिस्थ था।वह जैसे मुझ में स्थित बोधि वृक्ष।”
“मैं जैसे नादयोग का एक साधक था, वह जैसे मुझ में व्याप्त ओं’कार ध्वनि।”
“मैं जैसे कोई क्रियायोगी था, वह जैसे मुझ में जागृत कुंडलिनी।”
“वह जैसे मेरी काया की तरह थी और मेरे होने को परिभाषित कर रही थी।”
“वह जैसे ऋचाओं की तरह मुझे कंठस्थ थी ।अनाहत से उठकर विशुद्धाख्या चक्र में थिर हो चुकी थी।”
इतने पावन और अलौकिक विचार विशुद्ध प्रेम में ही पनप सकते हैं।
लेखक सौंदर्य की किसी भी उपमा को अनुभव करने से नहीं चूके हैं। संस्कृति से लेकर सभ्यता ,पृथ्वी से आकाश, चराचर जीवों से लेकर अंतरिक्ष, नदियां ,पहाड़, पेड़ों ,जंगल का उल्लेख तो बहुत साधारण है, लेखक की कल्पना के साथ-साथ जाने कितने संदर्भ आए हैं ,जाने कितने उदाहरण। त्याग- समर्पण, वेद ऋचाएं, ईश्वर, दिव्य, अलौकिक, प्राप्त, अप्राप्त, समक्ष -परोक्ष, दृष्टव, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म जिस -जिस स्तर पर प्रेम अनुभव किया जा सकता है लेखक ने जैसे सब को निचोड़ कर इस उपन्यास को रचा है।
नायिका के सौंदर्य के प्रतिमानों को गढ़ते हुए जाने हम किन-किन कवियों के काव्य ग्रंथों से गुजरते हैं। केशव, पद्माकर, मंडल, ग्वाल, घनानंद, कालिदास, देव, सेनापति जिन्होंने इन्हें पढ़ा होगा, अवश्य याद करते नज़र आएंगे। नासिका, ललाट, कपोल, नेत्रों के अतिरिक्त भी सौंदर्य का वर्णन लेखक ने बहुत ही खूबसूरती से किया है। गुलमोहर से नायिका की तुलना कितनी मौलिक है। उपन्यास में गुलमोहर का उल्लेख आते ही एक भरा -पूरा फूलों से लदा गुलमोहर सामने दिखता है। लेखक के द्वार कनेर के लाल फूलों से होंठों की कल्पना पर रश्क करने को मन होता है।
लेखक अपनी पूरी बेचैनी के साथ अपने विवरण और संदर्भों के माध्यम से एक पाठक को भी चैन से इसे पढ़ने नहीं देते। स्थापत्य कला, ऐतिहासिक नायक नायिकाएं ,देश-विदेश से संदर्भित व्यक्तित्व ,फूलों की तरह -तरह की प्रजातियां ,संगीत के वाद्य यंत्रों से लेकर संगीत के विभिन्न राग-रागिनीओं का उल्लेख न केवल रोमांचित करता है बल्कि लेखक के कला क्षेत्र के विभिन्न विषयों के ज्ञान का भी लोहा मनवाता है।
एक नायक की मनोव्यथा, उसके स्वप्न, उसके चाव, उसके सुख ,उसके डर, सब से रूबरू होता पाठक कभी बच्चा बन जाता है, कभी युवा तो कभी दार्शनिक।
“किसी की स्मृति का सुख उसके मिलने के सुख से अधिक सुकून अवश्य ही देता है।
अप्राप्य की अभिलाषाओं के सुख अवर्णनीय हैं।”
इश्क़ सूफ़ी होता है। सूफियाना अंदाज़ में अपने रब को कण- कण में देखता है, महसूस करता है , लेकिन सुदेश जी के यहाँ “इश्क़ अघोरी होता है।” जब पाठक इन पंक्तियों से गुज़रता है तो अपने जिये हुए प्रेम के वे पल ज़रूर याद करता है, जिनमें वह अपने प्रेम को किसी भी समय,किसी भी पल अपने सामने पाने की कल्पना करता है।
“इश्क़ अघोरी होता है।उसकी औघड़ता ही उसकी बुनावट है।वह आत्माओं का आह्वान करता है। उनसे बात करता है।”
इश्क़ में ऐसे बहुत से पल आते हैं।जब मिलकर भी मिलना बाक़ी रह जाता है।जो कहना होता है ज़ह्न में नहीं आता ,आता भी है तो ज़ुबां साथ नहीं देती। लेकिन वस्ल के बाद उन लम्हों को बार बार जीने का सुख बयान नहीं किया जा सकता –
“किसी का हमारे पास होना हमें उतने सुख में नहीं भरता, जितना उसके पास होने के अहसास को महसूस करना।”
“उसके बारे में सोचना मुझे आत्ममुग्ध बना रहा था।”
प्रेम आत्ममुग्ध बनाता है! हाँ शायद , क्योंकि प्रेम में जब अपने प्रिय को याद कर रहे होते हैं ,तब हम खुद ही याद कर रहे होते हैं।हर बार हर क्रिया – प्रतिक्रिया को जी रहे होते हैं।
प्रेम में हर क्रिया – कलापों में सबसे सुखद होता है , इंतज़ार, प्रतीक्षा। इन प्रतीक्षा के क्षणों में होने वाले मिलन की कल्पना,जितना सुख देती है उतना शायद ही मिलन देता हो।
प्रेम में मिलन है तो विछोह भी है।बिछुड़न उसके लिए अधिक घातक होती है जो हर संभव प्रयास से रिश्ते से बंधा रहना चाहता है।
“यह परिपूर्णता का स्वांग है। सच की प्रतीति इसी में निहित है।”
“किसी भी रिश्ते के दुख केवल उस शख़्स के हिस्से आते हैं जो उस रिश्ते को निभाना चाहता है।जो उस रिश्ते में रहना चाहता है।वह शापित होता है, यातनाओं को भोगने के लिए।”
प्रेम का अधूरापन उम्र भर सालता है।
“अप्राप्य की स्मृतियों के दंश कभी नहीं मिटते।”
उपन्यास का कथानक किसी ग़ज़ल के अशआर सा है, जिसमें कभी भी कोई भी स्वतंत्र शेर (अध्याय) नई स्मृतियों, नये वाक़यात के साथ घटता है।
उपन्यास में यदि पाठक केवल कहानी खोजता है तो उसे निराशा होगी क्योंकि कहानी घटनाओं के सायों में आगे बढ़ती है। खूबसूरत नज़्में और अशआर, कहीं – कहीं पूरी ग़ज़ल कथानक को सूत्रधार की तरह पिरोते हुए लगते हैं।
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पहले सुदेश जी ने ग़ज़लें लिखीं फिर ग़ज़लों में छिपी कहानी को आकार दिया। जो बहुत ही मुश्किल काम है क्योंकि प्रेम को अभिव्यक्त करना, इतने सारे संदर्भों से जोड़ना किसी शोधकार्य से कम नहीं। काव्यात्मकता से भरपूर गद्य को पढ़ना किसी लम्बी कविता को पढ़ने जैसा अनुभव है। भाषा पर अधिकार, संप्रेषण की अद्भुत क्षमता, उपन्यास “पण्डिताइन” की खूबसूरत कल्पना को साकार करता हुआ अपने आप में अनोखा उपन्यास है। यह एक अधूरे प्रेम की दास्तान है। हर प्रेमी इस दौर से गुज़रता है अथवा नहीं यह अलग बात है लेकिन ऐसी शिद्दत से प्रेम किया जाना हर प्रेमिका का स्वप्न होगा।
इस उपन्यास का अंत ही इसका प्रारंभ है।
सुदेश कुमार मेहर जी को इस उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं __
रूपेंद्र राज तिवारी
रायपुर/छत्तीसगढ़
साभार : उर्मिला देवी ‘उर्मि’
