छत्तीसगढ़ में वर्तमान आदिवासी आरक्षण पर आदिवासी समाज में नाराजगी

छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज को संवैधानिक रूप से 32 प्रतिशत आरक्षण सेपरेट अध्यादेश या बिल या विधेयक की मांग।
रायपुर। छत्तीसगढ़ राज्य गठन (2000) उपरांत आदिवासियों की जनसंखया 32 प्रतिशत हो गया। छत्तीसगढ़ में लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्रफल पांचवी अनुसूची क्षेत्र घोषित है। आदिवासियों को आर्थिक और सामाजिक शैक्षणिक स्तर अभी भी बहुत पिछे है। केन्द्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (DOPT) के आदेश 05.07.2005 के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य में आरक्षण एस.टी-32, एस.सी.-12, ओ.बी.सी-6 प्रावधानित है। छ.ग. राज्य के आदिवासी समुदाय के द्वारा बार-बार लोकतांत्रिक तरीके से निवेदन, आवेदन, धरना प्रदर्शन, चक्का जाम, विधान सभा घेराव के उपरांत बहुत मुश्किल से तत्कालिन सरकार द्वारा 2012 में आरक्षण अध्यादेश लाया गया जिसमें एस.टी-32, एस.सी.-12, ओ.बी.सी-14 दिया गया और उस अनुरूप रोस्टर भी बना। 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण के कारण हाई कोर्ट में अपील हो गया जिसमंे तत्कालीन सरकार और वर्तमान सरकार द्वारा डाटा और साक्ष्य प्रस्तुत नही किया गया। 19 सितम्बर 2022 को हाईकोर्ट ने आरक्षण अध्यादेश 2012 को अमान्य कर दिया। छत्तीसगढ़ समान्य प्रशासन विभाग के द्वारा सूचना के अधिकार के तहत पत्र क्रमांक-2135 दिनांक-04.11.2022 मिले जानकारी अनुसार छत्तीसगढ़ में आरक्षण रोस्टर शून्य हो गया। छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज सशंकित है, युवाओं में आक्रोश एवं निराशा है, समाज अपने आपको ठगा महसूस कर रहा है।
आदिवासी बाहूल्य राज्य में राज्य गठन नवम्बर 2001 से 2012 तक 12 प्रतिशत बेकलॉग भर्ती के लिए बार-बार निवेदन के बाद भी आज तक नही भरा गया एवं जानकारी भी उपलब्ध नही कराई गई। वर्तमान में 12 जन जातियों को और जोड़ा गया है उनकी जनसंख्या जोड़ा जाये और उस अनुरूप संशोधित आरक्षण दिया जायें।
आदिवासी समाज के द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से निवेदन उपरांत धरना प्रदर्शन, चक्का जाम के दबाव से छत्तीसगढ़ शासन द्वारा विधानसभा का विशेष सत्र 02 दिसम्बर 2022 को 76 प्रतिशत आरक्षण का संकल्प लाया गया जिसमें एस.टी-32, एस.सी.-13, ओ.बी.सी-27, ई.डब्ल्यू.एस.-4 दिया गया। पूर्व के भांति 76 प्रतिशत आरक्षण में कानूनी अड़चन संभावित है। क्योकि 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. के आरक्षण हाई कोर्ट मंे लंबित है एवं 58 प्रतिशत आरक्षण सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पर है। आज की परिस्थिति में आदिवासी समाज के 32 प्रतिशत आरक्षण विधिमान्य और केन्द्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से अधिमान्य है। आदिवासी समाज को अलग से संवैधानिक अधिकार, पांचवी अनुसूची क्षेत्र एवं शासन के द्वारा विभाग भी अलग से है। इसलिए आदिवासियों के लिए अलग से 32 प्रतिशत आरक्षण साथ ही 12 जनजातियों के जनसंख्या बढ़ोतरी के साथ दिया जायें।
मुख्यमंत्री आदिवासी समाज को दुर्भावनावश गुमराह व लड़ाने की प्रयास कर रहा है। 32 प्रतिशत आरक्षण के कारण बने हुए आदिवासी विधायक और मंत्री भी आदिवासी आरक्षण की मांग पर पार्टी या केबिनेट में कुछ नही बोल पा रहे है। आदिवासी आरक्षण के बजाय विवादित संकल्प 76 प्रतिशत जिसका कोर्ट में फसने का पूर्ण संभावना है, के लिए बिना वजह आदिवासियों के संरक्षक राजभवन के विरूद्ध स्तरहिन और अवैधानिक टिप्पणियां कर रहे और लोगो को उकसा रहे है। शासन-प्रशासन एवं आदिवासी विधायक मंत्री अगर अतिशीघ्र 32 प्रतिशत आरक्षण के लिए पृथक रूप से अध्यादेश या बिल या विधेयक नही लाते है तो सर्वआदिवासी समाज (रूढ़िजन्य परंपरा पर आधारित ) अपने अधिकार के लिए उग्र पदर्शन के लिए बाध्य होगा जिसका पूर्ण जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की होगी।
छत्तीसगढ़ में आरक्षण का मामला फसने पर आदिवासी समाज में नाराजगी देखी जा रही है, जिस पर आज एक प्रेस वार्ता कर अरविंद नेताम ने कहा विशेष चर्चा का विषय है आरक्षण का मुद्दा और ये पिछले सितंबर मैं हाईकोर्ट के फैसले के बाद उठा है और हाईकोर्ट के फैसले से सबसे ज्यादा प्रदेश आदिवासी समाज दुखी भी है चिंतित भी है,
संविधान के हिसाब से आरक्षण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का संविधान यही कहता है जितनी आबादी होगी उतना आरक्षण होगा या फिक्स है इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं है।
मध्यप्रदेश में हमारी आबादी 20 परसेंट था तो 20% आदिवासियों को और 16% मध्यप्रदेश में शेड्यूल कास्ट का था।
नया राज्य बना तो भारत सरकार ने नया आदेश जारी किया उसमें हमारा 20 से 32 हुआ और शेड्यूल कास्ट का 16 से 12 परंतु पिछली सरकार ने करीब 5 से 6 शाल पेंडिग रखा…
2011 में हम लोगों ने आंदोलन किया,जेल भी गए तब कहीं जाकर के ये आदेश पालन हुआ पर उसमे बैकवार्ट क्लासेस का 6 से 14 हुआ यानी के कुल 58% का आरक्षण जो इंदिरा साहनी जजमेंट जो है सुप्रीम का उससे 8% ज्यादा हो गया और शायद वही एक बेस था माननीय हाईकोर्ट का जिसको पूरी की पूरी आदेश को असंवैधानिक घोषित किया है और आज वह सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
मेरे हिसाब से आरक्षण विशुद्ध रूप से संवैधानिक मामला है कोई एडमिनिस्ट्रेटिव आर्डर से होता नहीं बस संविधानिक मामला है और इस मामले को संविधान के दायरे में रहकर ही सोचना चाहिए देखना चाहिए।
अरविंद नेताम ने आगे कहा…अभी आरक्षण के मामले को लेकर हम लोग इतना उलझ गए हैं समाज में पर उसे भी महत्वपूर्ण है पेसा कानून हो यह तो नेक्स्ट स्टेप में हम भी जायेंगे समाज के सामने पेशा कानून ज्यादा महत्वपूर्ण है इसलिए जल जंगल जमीन पर अधिकार ढाई सौ साल से समाज का नहीं था अंग्रेजों से लेकर के 1996 तक भारत सरकार आजाद हुआ उसके बाद भी नही था, पेशा कानून 96 में बना उसमें जल जंगल जमीन पर समाज का नियंत्रण यह पहली बार कानून बना जो कभी सोच भी नहीं सकता था और उसको ही सरकार ने एक झटके में खत्म कर दिया।
चिंता का विषय है इस पर आज तक राज्य सरकार से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया ।
