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संसार में मुझे बुराई ही बुराई क्यों दिखाई देती है: ओशो 

कृष्णानंद, संसार तो दर्पण है। संसार में जो दिखाई देता है, वह अपना ही चेहरा है। संसार तो प्रतिध्वनि है। संसार में जो सुनाई पड़ता है, वह अपनी ही आवाज है। हम संसार में वही पाते हैं, जो हम हैं; जैसे हम हैं।
एक शराबी किसी अजनबी गांव में आए। आते ही शराबघर का पता पूछेगा। दस—पांच दिन के भीतर ही तुम पाओगे कि गांव के सारे शराबियों से उसकी पहचान हो गई, दोस्ती हो गई। जैसे गांव में कोई और रहता ही नहीं। शराबियों से ही उसका मिलन होगा। एक जुआरी आए, जुए के अड्डे पर पहुंच जाएगा। जुआरियों से दोस्ती बन जाएगी। जैसे कोई चुंबक खींचता हो। उसी गांव में सत्संग भी चलता होगा, मगर जुआरी को सत्संग का पता ही नहीं चलेगा। सत्संग के पास से गुजर जाएगा और कानोंकान आहट भी न मिलेगी। फिर उसी गांव में कोई संन्यासी आए, उसे पता भी न चलेगा कि गांव में कोई शराबघर भी है; कि गांव में कोई जुआरी भी रहते हैं।
झेन फकीर रिंझाई कंबल ओढ़ कर बैठा था। देखता था पूर्णिमा का चांद। साधारण रात न थी, असाधारण थी; और भी असाधारण थी, क्योंकि इसी पूर्णिमा की रात को इसी वैशाक की पूर्णिमा को बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ था। इसी पूर्णिमा की रात को बुद्ध पैदा हुए। इसी पूर्णिमा की रात उनके जीवन में भी चांद उतरा, प्रकाश उतरा। और इसी पूर्णिमा की रात वे महापरिनिर्वाण में प्रविष्ट हुए। उन्होंने देह छोड़ी। रिंझाई बैठा है, सर्द रात, कंबल ओढ़े, देखता है चांद को, आनंद—विभोर है, मग्न है—सांसें उसकी बंद रही होंगी; आंखें एकटक चांद को देखती होंगी। इस चांद ने जैसे बुद्ध को बहुत—बहुत याद दिला दिया है। तभी एक चोर उनके झोंपड़े में घुस आया। रिंझाई ने चोर को देखा, जाकर चोर को पकड़ा और कहा कि भाई, क्षमा कर! चोर तो बहुत घबड़ाया। क्षमा तो उसे मांगनी चाहिए। वह तो छूट के भागने लगा। रिंझाई ने कहा, रुक, ऐसे मत जा! खाली हाथ जाएगा तो मैं जिंदगीभर दुःखी रहूंगा। यह कंबल लेता जा! और तो मेरे पास कुछ है नहीं। कंबल दे दिया चोर को। रिंझाई नंगा था कंबल के भीतर—कुछ और तो था नहीं। चोर झिझका भी। चोर भी झिझका! इस प्यारे फकीर से इसका कंबल ले लेना और इसको नंगा छोड़ जाना ठंडी रात में, उसने ना—नुच की, लेकिन रिंझाई ने कहा कि नहीं मानूंगा। मुझे बड़ा दुःख होगा। और यह कोई बात हुई? इतना बड़ा सौभाग्य दिया मुझे—आज तक कोई चोर मेरे झोंपड़े पर नहीं आया। चोर जाते हैं धनपतियों के घर! तूने मुझे धनपति बना दिया। चोर जाते हैं राजाओं, सम्राटों के घर! तूने आज मुझे राजा और सम्राट होने का मजा दे दिया। तूने मुझे जो दिया है, वह बहुत ज्यादा है, कंबल तो कुछ भी नहीं। आज लग रहा है कि हम भी कुछ हैं। चोर इधर भी आने लगे! तू देख, ले जा! और आगे से खयाल रख, यह कोई ढंग नहीं! यह कोई शिष्टाचार है? अरे, दो—चार दिन पहले खबर करता तो हम कुछ इंतजाम कर लेते। दुबारा जब आए, तो एक चार दिन पहले एक पोस्टकार्ड ही डाल देना। कुछ तेरे लिए आयोजन कर लेते। इतने दूर तू आया गांव से, सर्द रात्रि, एक कंबल ही दे रहा हूं, मेरी आंखों में आंसू हैं, नहीं मत कर!
ऐसे आदमी को क्या नहीं करो और क्या हां भरो, चोर तो कुछ किंकिर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसकी तो समझ में ही नहीं आया। बहुत देखे थे उसने लोग, बहुतों घरों में चोरी की थी, बहुत बार पकड़ा भी गया था, मगर यह आदमी अनूठा था! यह आदमी पहली दफा मिला था। भागा लेकर कंबल! जैसे ही बाहर जा रहा था कि रिंझाई ने आवाज दी कि ठहर, कम—से—कम धन्यवाद तो दे दे, शिष्टाचार तो सीख। कम—से—कम इतनी ही बात तो याद रख! और दरवाजा बंद कर दे। जब आया था दरवाजा बंद था, तू खोलकर भीतर आया; अब दरवाजा फिर बंद कर दे और धन्यवाद देकर अपने रास्ते पर लग! दुबारा जब आए, पहले खबर कर देना। उसने जल्दी से धन्यवाद दिया और दरवाजा बंद किया। रिंझाई ने उसे आवाज दी कि ठहर, तो उसकी छाती धक से हो गई कि यह आदमी बड़ा अजीब है! यह क्या कर गुजरे, कुछ कहा नहीं जा सकता!
फिर वह पकड़ा गया अदालत में, किसी और चोरी के मामले में। और वह कंबल भी पकड़ा गया। वह कंबल तो जाहिर था। वह तो पूरे जापान में जाहिर था। वह तो सभी को पता था कि यह रिंझाई का कंबल है। रिंझाई तो इतना प्रसिद्ध था कि सम्राट उसके चरणों में आते थे। वह कंबल किसको पता नहीं था? सम्राटों ने जिस कंबल में रिंझाई को देखा हो, लोगों ने, हजारों लोगों ने जिस कंबल में देखा हो—मजिस्ट्रेट ने भी रिंझाई को देखा था उस कंबल में, उसने कहा यह कंबल रिंझाई का है। और कुछ दिन से वह सिर्प लंगोटी में है, उसका कंबल कहां गया, आज पता चला। तो तूने उस फकीर को भी नहीं छोड़ा! तेरी और चोरियां मैं माफ भी कर दूं, मगर यह चोरी मैं माफ नहीं कर सकता। यह हद हो गई। रिंझाई की भी तू चोरी कर सका! चोर ने बहुत कहा कि मालिक, सुनो, यह चोरी मैंने की नहीं, उसने जबरदस्ती मुझे कंबल दिया। वह माने ही नहीं। मैं अपनी जान बचाने के लिए कंबल ले आया। और अब आप से क्या कहूं? उसकी वह कड़कती आवाज, जब उसने कहा कि रुक, अभी याद आ जाती है तो मेरी छाती दहल जाती है। और उसने कहा बंद कर दरवाजा! क्या आदमी है!! क्या उसकी आवाज है!! आदमी बहुत देखे मगर यह आदमी आदमी है। मगर चोरी मैंने नहीं की। सम्राट ने कहा, अगर रिंझाई कह दे कि चोरी तूने नहीं की, तो हम तुझे मुक्त कर देंगे—और चोरियों से भी मुक्त कर देंगे; उसकी गवाही काफी है।
रिंझाई बुलाया गया।
रिंझाई ने कहा कि नहीं, यह आदमी चोर नहीं है। पहले तो यह आदमी बड़ा सीधा—सादा है। मेरे घर आया, बिना खबर किए आया। इसकी सादगी देखो, इसका भोलापन देखो! दूसरे, यह आदमी बड़ा शिष्टाचारी है। जब मैंने कहा, ठहर, दरवाजा बंद कर, तो इसने दरवाजा बंद किया; यह बड़ा आज्ञाकारी है। और जब मैंने कहा, धन्यवाद दे, तो इसने धन्यवाद दिया। इसने ज़रा संकोच न किया। यह बड़ा आस्थावान है। यह चोरी नहीं की है इसने। मैंने इसे कंबल दिया तो यह ना—नुच करता था, इंकार करता था, मना करता था; हजार इसने भागने की कोशिश की थी। यह आदमी बड़ा सज्जन है। मुझ गरीब को देखकर, नंगा देखकर इसे बड़ी दया आई, इसके हृदय में बड़ी करुणा है। यह चोर तो हो ही नहीं सकता।
रिंझाई ने जब ऐसा कहा, तो मजिस्ट्रेट ने उसे छोड़ दिया। रिंझाई बाहर निकला, वह आदमी भी रिंझाई के पीछे हो लिया। रिंझाई ने कहा, क्या इरादा है, अब मेरे पास कुछ भी नहीं! उस चोर ने कहा कि अब मैं लेने नहीं आ रहा हूं, अपने को देने आ रहा हूं। अब तुम्हारे चरणों को छोड़कर कहीं और नहीं जाऊंगा। तुम्हें क्या देखा, आदमियत की गरिमा देख ली। तुम्हें क्या देखा, परमात्मा पर भरोसा आ गया। रिंझाई ने चोर में चोर नहीं देखा, बेईमान नहीं देखा, तो फिर चोर भी रिंझाई में परमात्मा को देख सका।
तुम कहते हो, कृष्णानंद, संसार में मुझे बुराई ही बुराई क्यों दिखाई देती है? ज़रा भीतर टटोलो, ज़रा अपनी गांठ में टटोलो, वहां कुछ भूलचूक होगी। सब से बड़ी भूलचूक है, अहंकार। अहंकार के कारण लोग दूसरों में बुराई देखते हैं। क्योंकि अहंकार दूसरों में बुराई देखकर बड़ा प्रफुल्लित होता है कि मैं श्रेष्ठ, कि मैं सुंदर, कि मैं महात्मा, कि मैं पवित्र; कि कौन है जो मेरा जैसा विनम्र और कौन है जो मेरा जैसा पुण्यात्मा; कि कौन है जो मेरा जैसा दानवीर, दानशूर। अहंकार दूसरों पर जीता है। दूसरों की लकीरें छोटी कर देता है, तो अपनी लकीर बड़ी मालूम पड़ने लगती है। दूसरों को छोटा करने का एक ही उपाय है कि उनकी बुराई देखो, बुराई—ही—बुराई देखो।
अहंकारी आदमी से कहो कि फलां आदमी बहुत सुंदर बांसुरी बजाता है, वह फौरन कहेगा—क्या वह ख़ाक बांसुरी बजाएगा? चोर, बेईमान, लुटेरा, वह क्या बांसुरी बजाएगा? वह क्या ख़ाक बांसुरी बजाएगा? अरे, मैं उसे भलीभांति जानता हूं। लेकिन रिंझाई जैसे किसी आदमी से अगर कहो कि वह आदमी चोर है, तो वह कहेगा, नहीं हो सकता, क्योंकि मैंने उसकी बांसुरी सुनी है। जो इतनी प्यारी बांसुरी बजाता है, वह चोर कैसे हो सकता है? असंभव। यह मैं मान ही नहीं सकता। अपनी आंख से देख लूं तो समझूंगा मेरी आंख गलत देखती है, कि मेरी आंख में कहीं भूल—चूक है, लेकिन जो इतनी प्यारी बांसुरी बजाता है, संगीत पर जिसका ऐसा वश है, ऐसा अधिकार है, वह चोरी करेगा? असंभव! अरे, संगीत जिसे मिला है वह किस संपदा के लिए उत्सुक होगा?
लोग हैं, जो गुलाब की झाड़ी के पास जाएं तो कांटे गिनेंगे। और लोग हैं, जो कांटों की फिक्र ही न करेंगे और फूल गिनेंगे। और एक फूल भी दिखाई पड़ जाए तो सारे कांटे व्यर्थ हो जाते हैं। एक फूल का होना काफी है सारे कांटों को व्यर्थ कर देने के लिए। लेकिन जो लोग कांटे ही गिनते हैं, स्वभावतः उसके हाथों में कांटे चुभ भी जाएंगे। कांटों की गिनती करोगे तो कांटे चुभेंगे। लहूलुहान हो जाओगे। फिर जब हाथ लहूलुहान होंगे और पीड़ा से भरे होंगे, तो किसको फूल दिखाई पड़ सकता है? और जिसने कांटे गिने, उसका तर्क यह होगा कि जहां इतने कांटे हैं, वहां फूल भ्रम ही हो सकता है, सत्य नहीं।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। कांटे गिनने वाले लोग, उनको फिर फूल नहीं दिखाई पड़ते; दिखाई भी पड़ें तो वे कहेंगे भ्रम होगा; और वे लोग जो फूल गिनते हैं। उनको फूल दिखाई पड़ जाते हैं, तो उनके लिए कांटे कांटे नहीं रह जाते, फूलों के पहरेदार हो जाते हैं, फूलों के रक्षक हो जाते हैं। क्योंकि वही जीवनधार तो कांटे में बहती है जो फूल में। फिर उनकी कांटों से भी दुश्मनी नहीं रहती। फूलों से दोस्ती क्या हुई, कांटों से भी दुश्मनी नहीं रह जाती।
अपने अहंकार को थोड़ा तलाशो। उसी की छाया तुम्हें चारों तरफ दिखाई पड़ रही होगी।

रामदुवारे जो मरे-(संत मलूकदास)-प्रवचन-02

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