मेरा होना : तेरा होने से,समीक्षिका- उर्मिला देवी उर्मि
उपन्यास : पंडिताइन प्रकाशक : माय बुक सिलेक्ट पब्लिशिंग /नायाब बुक्स /दिल्ली लेखक : सुरेश कुमार मेहर मूल्य : रूपए 250 मात्र

महा मोदमय प्रेम , महा परितोषमय।
मान अधिकार पूर्ण ,मोहक संबंध है।।
मेरी प्रकाशनाधीन काव्य कृति प्रणम्य प्रेम की उक्त पंक्तियों से ही प्रस्तुत उपन्यास के विषय में अपने विचार- प्रवाह का क्रम आरंभ करते हुए मैं विद्वानों के इस मत पर सहमति व्यक्त करती हूं कि प्रेम की विशुद्धता और पवित्रता उसे महा मोदमय और महा परितोषमय बना देती है । पंडिताइन उपन्यास का आरंभ और समापन कार के स्टेयरिंग के घटनाक्रम से होता है , जहां चेतना के द्वार पर अनगिनत स्मृतियां ठहरी हुई सी प्रतीत होती हैं , किन्तु सुना है कि इस निराली प्रेम- नगरिया के सभी रंग- ढंग निराले होते हैं । इश्क डगर के कच्चे दिनों की कच्ची- पक्की स्मृतियां रह- रह कर मस्तिष्क में कौंधती रहती है , और महामोद के महासागर में अवगाहन करते- झूमते मन को उद्वेलित करती रहती हैं ।
यह उपन्यास प्रेम के अनगिनत उजले -अंधियारे गलियारों की सैर करवाते हुए पाठक को प्रेम की गहराई , तीव्रता , महत्ता और ऊंचाई का अनुभव करा देता है । इस दृष्टि से उपन्यास की ये पंक्तियां विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं —
उसके जिक्र के बिना कोई भी ग़ज़ल , कोई भी नज्म , कोई भी गीत मुकम्मल नहीं हो सकता था । उसकी बातों के बगैर मेरी कहानियां बिन पानी की मछलियों की- सी थीं
बहुत सारी अधूरी प्रेम कहानियों की भांति यह उपन्यास भी अपनी अधूरी प्रेम कहानी के साथ समाप्त होता है और एक न ख़त्म होने वाली कसक छोड़ जाता है। संभवत यही कारण है कि प्रेम की सही-सही परिभाषा करना असंभव सा प्रतीत होता है जिसके विषय में कहा जाता है —
है प्रेम बड़ा निगूढ , कोई इसकी कर ना सका परिभाषा।
कोई हो जाता तृप्त , कोई रह जाता प्यासा ।
सच पूछो तो प्रेम , ना किसी जतन से होता है ।
होता है तो महज़ ,एक चितवन से होता है ।।
सुदेश जी लिखते हैं – कितनी प्रतिमाएं गढ़ता है नायक !!
“जो नहीं लिखते थे वह मन की स्लेटों पर लिखते थे।
जो लिखते थे वह कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और कई अन्य विधाओं में लिखा करते थे।
सब लोग अधूरापन लिखते हैं
अधूरापन ही सच है ।
यह जीवन की तरह है।”
सच, अधूरापन जीवन की तरह है….हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता….।
“किसी भी रिश्ते में दुख केवल उस शख्स के हिस्से में आते हैं जो उस रिश्ते को निभाना चाहता है।”
“मिट्टियाँ अगर माफिक ना हो, तो उम्रें थक जाती हैं नेह के बीजों को रोपते हुए । वरना जोग तो क्षण भर में घट जाता है।”
अपनी ग़ज़लों के मोहक वातावरण के रेशमी धागों में इस उपन्यास को पिरोना सुदेश जी के लिए सरल नहीं रहा होगा । इस उपन्यास को पढ़ने से उनकी शब्दों- भावों पर पकड़ , उनकी शब्दकोश पर पकड़, उनके द्वारा विभिन्न शास्त्रों का अनुशीलन हर जगह झलकता है …सहज प्रवाहमयी शैली के कारण उनके वाक्य बहते चले आते हैं और अनायास ही के हृदय पटल पर अपना स्थान बना लेते हैं। चिकित्सा शास्त्र विषयक जानकारी के लिए एक उदाहरण दृष्टव्य है –
नेह के धागों में बंधने पर नायक जिस व्याधि से ग्रस्त होता है ,उसके निदान की जानकारी अश्विनी कुमार , धन्वंतरि ,दिवोदास , नकुल ,सहदेव , अर्कि च्यवन ,बुध ,जावाल ,पैल , करथ ,अगस्त्य ,अत्रि ,सुश्रुत ,चरक आदि आचार्यों ने कहीं किसी सूत्र में नहीं दी है ।
ईश्वर के विराट स्वरूप की आराधना में सभी आराध्यों का अर्चन -पूजन हो जाता है
विश्वरूप में अदिति के 12 पुत्र , (द्वादश आदित्य) ,8 वसु , 11 रुद्र , दोनों अश्विनी कुमार ,49 मरुद्गण , स्वर्ग ,नरक ,मृत्युलोक आदि सभी लोक , 14 भुवन , इंद्र तथा सभी देवता ,अनेक सूर्य ,अनेक ब्रह्मा , शिव ,समस्त चराचर ब्रह्मांड समाहित हैं । ..जिसमें वह भी और मैं स्वयं भी सम्मिलित हैं ।
मुझे विराट स्वरूप में उसकी भी प्रतीति होती है।
और ..और प्रेम की पराकाष्ठा तो देखिए जब द्वैत भाव मिट जाता है , कोई “मैं” नहीं रह जाता। रहता है तो केवल “केवल तुम” । *तत् त्वमसि* की भावना के साथ उपन्यासकार सुरेश जी अत्यंत सरल शब्दों में लिखते हैं –”
” मैं इस कदर “तुम” हो चुका था कि मैं का कोई अर्थ बाकी नहीं रह गया था। मैं यानी तुम। अभिप्राय यह कि मेरे अस्तित्व का होना तुम्हारा होने से ही तो है ।
यह उपन्यास कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से सराहनीय है । इस कथन की पुष्टि के लिए ये पंक्तियां भी अत्यंत महत्वपूर्ण है —
उसकी आंखों में देखना ठीक वैसा ही है जैसे आईनों में स्वयं की छवि में स्वयं की तलाश।
वे किसी गहरी झील सी हैं , जिनमें डूब जाने को जी करता है ।मोक्ष की आस में मृत्यु की सी आकांक्षा की तरह।
उसकी आंखों की पगडंडियों के तिलस्म में खोकर ही अब खुद को पाया जा सकता था।
बिम्बों ,उपमाओं और प्रतीकों के प्रयोग से जादुई वातावरण की सृष्टि करने की सुदेश जी की निपुणता पर तो ईर्ष्या होती है।
“इश्क में करौंदे- सा स्वाद था , रात- रानी सी गमक थी”।
उपन्यास के नायक के प्रेम की पवित्रता…. प्रेम में होने की अनुभूति …. प्रेम का बुद्धत्व सा घटना ….ऐसे प्रेम की अलौकिकता अद्भुत है। सुदेश जी लिखते हैं–
मैं जैसे नादयोग का एक साधक था , वह मुझ में व्याप्त ओंकार ध्वनि ।
मैं जैसे कोई क्रियायोगी था , वह मुझ में जागृत कुंडलिनी ।।
पूरा उपन्यास ग़ज़ल की तरह मनोरम है ।
इस उपन्यास में कुमुद, करवरी, चणक, मालती, पलाश, एवं वनमाला के फूलों से नेह रखने वाले माधव हैं, मन्दिरों की दहलीज़ों पर रखे हुए पुष्पों वाले सवेरे है, नर्मदा के तट की साँझ है। कालिदास के शाकुंतलम् का उल्लेख है, अलग अलग व्यक्तित्व, फूलों की अलग अलग प्रजातियों, संगीत के वाद्य यंत्रों, राग-रागनियों की चर्चा , अलग अलग महीनों के सवेरे- संध्या का विवरण, पाठकों को एक अलग ही संसार में ले जाता है ।
किसी की स्मृति का सुख उसके मिलने के सुख से अधिक सुकून अवश्य ही देता है । ऐसे ही पलों की जो स्मृति नायक के मन मस्तिष्क में कौंधती है उसका पुनः अनुभव इन पंक्तियों के माध्यम से बड़ी सहजता से हो जाता है
वे पल जब-
हवाएं , रोशनी गीत गुनगुनाती हुई आया करती थी।
सांझ अलसाई आंखों से मुझे देख कर मुस्कुराने लगती थी।
उसे देखना और उसे व्यक्त करना सदैव अधूरा रह जाता है ।
सौंदर्य के प्रतिमानों के विवरण की बात करें तो उपन्यास को पढ़ते समय पाठक स्वयं को कालिदास , केशव ,पद्माकर ,ग्वाल ,मंडल घनानंद , सेनापति आदि महाकवियों के काव्य ग्रंथों में विचरण करता हुआ पाता है। और …और ..गुलमोहर से नायिका की तुलना तो उपन्यासकार सुदेश जी की सर्वथा मौलिक उद्भावना ही प्रतीत होती है।
मान -मनुहार ,अधिकार , त्याग , समर्पण ,दिव्य -अलौकिक ,प्राप्त – अप्राप्त ,प्रत्यक्ष- परोक्ष, सूक्ष्म अति सूक्ष्म , वृहद ,पूर्ण -अपूर्ण जितने स्तर पर भी प्रेम का अनुभव संभव है , उपन्यासकार ने उस भाव -भूमि की सृष्टि करके उसे सरस बनाए रखा है ।
अधूरेपन , अतृप्ति ,असंतोष के कारण आमतौर पर छोटी-बड़ी शिकायतों के बाद जैसे आरोप-प्रत्यारोप और आपसी मार- पीट के दृश्य देखे जाते हैं , उनकी कल्पना का अंश मात्र भी इस उपन्यास में नहीं दिखाई देता है । इसलिए कहा जा सकता है कि
वर्तमान समय में जहां प्रेम का विकृत रूप दिखाई देता है वहां – वहां समाज को उस विद्रूपता से बचाने के लिए पंडिताइन उपन्यास महती भूमिका का निर्वाह कर सकता है
उपन्यास के प्रेममय वातावरण में खोए पाठक के मुख से अनायास ही निकल पड़ता है–
अद्भुत पंडिताइन ! अद्भुत…
एक महनीय , कमनीय और रमणीय उपन्यास हम सबके लिए उपहार स्वरूप प्रस्तुत करने हेतु उपन्यासकार को पुनः – पुनः साधुवाद ! बहुत -बहुत बधाई । उनकी कृतियों से साहित्य के भंडार में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे ,ऐसी शुभकामना है ..
उर्मिला देवी उर्मि
रायपुर , छत्तीसगढ़