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विश्व प्रसिद्ध बस्तर का दशहरा, 75 दिनों तक मनाया जाता है पर्व

जगदलपुर। बस्तर का दशहरा परम्पराओं और शक्ति उपासना के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. छत्तीसगढ़ के वनांचल बस्तर में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व में राम और रावण से कोई सरोकार नही. यहां न रावण का पुतला दहन होता है और न ही रामलीला का मंचन होता है. बस्तर में दशहरे के दिन शक्ति की उपासना होती है. यहां कि पारंपरिक रस्म और अनूठा अंदाज देश के अन्य जगहों में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से अलग माना जाता है. यहां का दशहरा पर्व 75 दिन तक चलता है. इसमें कई रस्में होती हैं और 13 दिन तक दंतेश्वरी माता समेत अनेक देवी देवताओं की पूजा की जाती है.

75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है. जिसमें सभी वर्ग,समुदाय और जाति-जनजातियों के लोग हिस्सा लेते हैं. इस पर्व में राम-रावण युद्ध की नहीं बल्कि बस्तर की मां दंतेश्वरी माता के प्रति अपार श्रद्धा झलकती है. पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ होती है.

दशहरा में परम्पराएं :

रस्म में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करते हैं. विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हुए दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है और देखते ही दो मंजिला रथ बन कर तैयार हो जाता है.

इस पर्व में काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान है. रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है. इस विधान में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है. यह  बालिका बेल के कांटों से तैयार झूले पर बैठकर दशहरा पर्व मनाने की अनुमति देती है. जिस वर्ष माता अनुमति नही देतीं, उस वर्ष बस्तर में दशहरा नहीं मनाया जाता.

काछन जात्रा के दूसरे दिन गांव आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठ जाता है. पर्व को निर्विघ्न रूप से होने और लोक कल्याण की कमाना करते हुये युवक दो बाई दो के गड्ढे में 9 दिनों तक योग साधना करता है. इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मां के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते फूल रथ की परिक्रमा कराई जाती है.

रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है. भले ही वक्त बदल गया हो और साइंस ने तरक्की कर ली हो पर आज भी ये सबकुछ पारंपरिक तरीके से होता है. इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है. पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं. पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है. वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 12 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है.

इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है. रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को यादव जाति और राजपुरोहित तैयार करते हैं. जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है. निशाजात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व है.

बस्तर दशहरा का इतिहास

बस्तर के दशहरा पर्व की, रथयात्रा की शुरूआत सन् 1408 ई. के बाद चालुक्य वंश के चौथे शासक राजा पुरूषोत्तम देव ने की थी. राजा पुरूषोत्तम देव एक बार जगन्नाथ पुरी की यात्रा में थे. पुरी के राजा को जगन्नाथ स्वामी नें स्वप्न में यह आदेश दिया कि बस्तर नरेश की अगवानी व उनका सम्मान करें, वे भक्ति, मित्रता के भाव से पुरी पहुंच रहे हैं. पुरी के नरेश ने बस्तर नरेश का राज्योचित स्वागत किया. बस्तर के राजा ने पुरी के मंदिरों में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं, बहुमूल्य रत्न आभूषण और बेशकीमती हीरे-जवाहरात जगन्नाथ स्वामी के श्रीचरणों में अर्पित किया. जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह चक्कों का रथ राजा को प्रदान करने का आदेश प्रमुख पुजारी को दिया. इसी रथ पर चढ़कर बस्तर नरेश और उनके वंशज दशहरा पर्व मनायें.

पुरी नरेश से स्थायी मैत्री संधि कर बस्तर नरेश वापस लौटे, साथ में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र सुभद्रा की काष्ठ प्रतिमा अपने साथ लाए और भगवान की पूजा अर्चना के लिए कुछ आरण्यक ब्राह्मण परिवारों को भी अपने साथ लेकर आये, जो आगे चलकर बस्तर राज्य में ही बस गए. राजा पुरूषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से वरदान स्वरूप मिले सोलह चक्कों के रथ का विभाजन करते हुए रथ के चार चक्कों को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दिया और शेष 12 पहियों का विशाल रथ मां दन्तेश्वरी को अर्पित कर दिया, तब से दशहरा में दन्तेश्वरी के छत्र के साथ राजा स्वयं भी रथारूढ़ होने लगे. मधोता ग्राम में पहली बार दशहरा रथ यात्रा 1468-69 के लगभग प्रारंभ हुई.कई वर्षों के बाद 12 चक्कों के रथ संचालन में असुविधा होने के कारण आठवें क्रम के शासक राजा वीरसिंह ने संवत् 1610 के पश्चात् आठ पहियों का विजय रथ और चार पहियों का फूल रथ प्रयोग में लाया, तब से लेकर यह आज भी जारी है.

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