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मैं पृथ्वी मां बोल रही हूं.. दुखती परतें खोल रही हूं.-उर्मिला देवी उर्मि

पृथ्वी दिवस महोत्सव के उपलक्ष्य में अंतरराष्ट्रीय काव्य गोष्ठी

 


रायपुर। पृथ्वी दिवस महोत्सव के उपलक्ष्य में गृहस्वामिनी अंतरराष्ट्रीय और वर्ल्ड राइट्स फोरम के द्वारा‌ आयोजित अंतरराष्ट्रीय काव्य गोष्ठी मे पृथ्वी मां के दर्द को इन पंक्तियों से सुसज्जित भावपूर्ण कविता द्वारा रायपुर छत्तीसगढ़ की कवयित्री उर्मिला देवी उर्मि ने बखूबी बयां किया । गृहस्वामिनी अंतर्राष्ट्रीय के स्ट्रीम यार्ड स्टूडियो में संपन्न इस गोष्ठी में‌ *वर्जीनिया ,दुबई , वेंकूवर ,जमशेदपुर ,कानपुर , लुधियाना ,कैलिफोर्निया , रायपुर आदि विश्व के अनेक भागों से मंजू श्रीवास्तव ,अनु बाफना ,डॉक्टर श्वेता सिन्हा, डॉ आशा , इति माधवी ,रानी श्रीवास्तव ,सरिता कुमारी , शिखा पोरवाल आदि की सुंदर कविताओं की प्रस्तुति हुई* ।

मैं पृथ्वी मां बोल रही हूं / दुखती परतें खोल रही हूं।
अपने हर आंसू में अपनी /दुस्सह पीड़ा घोल रही हूं।
मानवता पर संकट की अपनी पीड़ा को एक तराजू तौल रही हूं।
देखो कैसे सिसक रही हूं/ अपना मौन अब तोड़ रही हू। ‌
आंखें खोलो, सुखद आस में /मैं भी आंखें खोल रही हूं । हां मैं पृथ्वी मां बोल रही हूं।
*उर्मि*

गोष्ठी का सफल संचालन वर्जीनियां की मंजू श्रीवास्तव ने किया ।

*लुधियाना से सीमा भाटिया ने पढ़ा*

*अंतस के झरोखों *से*
*झांक कर देखो तो सही*
*एक खूबसूरत दुनिया ख्वाबों की
धरती की हरियाली फैली चंहु ओर
या सूर्य की लालिमा युक्त हो भोर
वो सांझ का ढलना चुपके चुपके
और रात्रि थामे शीतलता की डोर*..

*वेंकूवर से जुड़ी शिखा पोरवाल ने वसुंधरा की वेदना को इस प्रकार व्यक्त किया* —
*मौन वेदना वसुंधरा की*
खून के घुंट पी रही*
हरियाली की चादर जर्जर
क्षितिज के आँचल पर
तपती गर्म हवाओं का डर
कांक्रीट के खड़े कर जंगल…

कार्यक्रम के समापन की बेला में गृह स्वामिनी अंतर्राष्ट्रीय की संपादक और इस महोत्सव की आयोजक अर्पणा संत सिंह ने सभी का आभार व्यक्त किया

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