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कबूतर बड़ा या चीता!


व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा

मोदी जी के इन विरोधियों ने लगता है कि भारत को बदनाम करने की सुपारी ही ले रखी है। बताइए, पहले जिस देश के पीएम कबूतर छोड़ा करते थे, मोदी जी उस देश में अब चीेते छुड़वा रहे हैं कि नहीं! देशी नहीं मिले, तो विदेश से मंगवाकर छुड़वा रहे हैं, पर चीते छुड़वा रहे हैं कि नहीं!! कहां बेचारा कबूतर और कहां शिकारी चीता; मोदी जी इंडिया की शान बढ़ा रहे हैं कि नहीं? पर मजाल है जो ये विपक्षी मोदी जी का जरा सा थैंक यू कर दें। उल्टे कह रहे हैं कि यह तो अक्ल बड़ी या भैंस 2.0 हो गया — कबूतर बड़ा या चीता! मोदी जी का नाम बदलते-बदलते मुहावरे बदलने तक पहुंच गए — कभी कुछ तो ऑरीजनल भी कर लेते!

चीतेे का कनैक्शन भैंस से जोडऩे की विरोधियों की चाल, मोदी जी बखूबी समझते हैं। पर विपक्षी यह कैसे भूल गए कि भैंस को मोदी जी के राज में वंश प्रमोशन देकर, गोवंश में शामिल किया जा चुका है। और क्यों नहीं किया जाता? सिर्फ रंग जरा गहरा होने के अलावा हमारी भैंस, गाय से किसी बात में कम है क्या? और मोदी जी का नया इंडिया रंगभेद बर्दाश्त नहीं कर सकता, हां! जाति की बात दूसरी है। और तो और चीता तक गाय और भैंस के मांस में अंतर नहीं करता है। इसलिए, विरोधी अगर भैंस का मजाक उड़ाने के जरिए, चीते को नीचा की कोशिश करते हैं, तो उन्हें हिंदुओं की भावनाओं का सामना करना पड़ेगा। चीता छोडऩे को, गोवंश विरोधी मामला बनाने की उनकी साजिश, हर्गिज कामयाब नहीं हो सकती। और प्लीज, कबूतर को, शाकाहारी और इसलिए शांतिवादी होने के नाम पर, चीते से बड़ा बताने की कोशिश कोई नहीं करे। चीता विदेशी मेहमान है और अगर उसके संस्कार मांसाहारी हैं तो, उनका भी सम्मान करना हमारा फर्ज हो जाता है। वर्ना कहां कबूतर और कहां छप्पन इंची छाती वाला चीता। कबूतर में और खासियत की क्या है, शाकाहारीपन के अलावा!

और छोडऩे से याद आया। जब से अमृतकाल आया है, सजायाफ्ता बलात्कारी भी तो धड़ाधड़ छोड़े जा रहे हैं। बिलकीस वालों से लेकर राम-रहीम तक। देसी चीतों की फसल आ गयी लगती है। यानी चीते छोडऩे में भी इतनी जल्दी आत्मनिर्भरता — वाह मोदी जी, वाह!

व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।

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